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"कामना / शैलेन्द्र चौहान" के अवतरणों में अंतर

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कितनी गहरी रही ये खाई   
 
कितनी गहरी रही ये खाई   
 
 
मन काँपता डर से
 
मन काँपता डर से
 
 
अतल गहराइयाँ मन की
 
अतल गहराइयाँ मन की
 
 
झाँकने का साहस कहाँ  
 
झाँकने का साहस कहाँ  
 
 
दूर विजन एकांत में
 
दूर विजन एकांत में
 
 
सरिता कूल सुहाना दृश्य कैसा  
 
सरिता कूल सुहाना दृश्य कैसा  
 
 
नीम का वृक्ष
 
नीम का वृक्ष
 
 
चारों ओर से गहरी खाई
 
चारों ओर से गहरी खाई
 
 
काली सिंध बह रही मंथर
 
काली सिंध बह रही मंथर
 
 
बीहड़ खाइयाँ
 
बीहड़ खाइयाँ
 
 
परिंदे पी पानी तलहटी का
 
परिंदे पी पानी तलहटी का
 
 
आ बैठते नीम की टहनियों पर  
 
आ बैठते नीम की टहनियों पर  
 
  
 
बड़ी मुश्किल से
 
बड़ी मुश्किल से
 
 
हम खाइयों के भय से पीछा छुड़ाते  
 
हम खाइयों के भय से पीछा छुड़ाते  
 
 
किलोल करते ये परिंदे
 
किलोल करते ये परिंदे
 
 
हम को चिढ़ाते
 
हम को चिढ़ाते
 
 
चींटियाँ रेंगती भू-भाग पर
 
चींटियाँ रेंगती भू-भाग पर
 
 
समझतीं प्राणियों को भी पेड़-पौधे  
 
समझतीं प्राणियों को भी पेड़-पौधे  
 
 
चढ़ती और गुदगुदा जिस्म पा
 
चढ़ती और गुदगुदा जिस्म पा
 
 
काट लेतीं त्वचा को
 
काट लेतीं त्वचा को
 
 
किनारे नदी के
 
किनारे नदी के
 
 
भेड़ बकरियों का झुंड
 
भेड़ बकरियों का झुंड
 
 
साथ चरवाहा   
 
साथ चरवाहा   
 
 
नहाता नदी में निश्छल भाव से  
 
नहाता नदी में निश्छल भाव से  
 
 
निचोड़ पानी कपड़ों से  
 
निचोड़ पानी कपड़ों से  
 
 
होता साथ बकरियों के
 
होता साथ बकरियों के
 
 
बादल घिर रहे आकाश में   
 
बादल घिर रहे आकाश में   
 
 
अतृप्त हैं ये खाइयाँ  
 
अतृप्त हैं ये खाइयाँ  
 
  
 
पावस में गहन ताप से
 
पावस में गहन ताप से
 
 
सूखी हैं ये, संतप्त हैं,
 
सूखी हैं ये, संतप्त हैं,
 
 
जल विहीना हैं
 
जल विहीना हैं
 
 
बादलों तुम बरसो यहाँ इतना     
 
बादलों तुम बरसो यहाँ इतना     
 
 
इस धारा को तृप्त कर दो     
 
इस धारा को तृप्त कर दो     
 
 
नदी काली सिंध पानी से लहलहाए  
 
नदी काली सिंध पानी से लहलहाए  
 
 
और ये ढूह
 
और ये ढूह
 
 
जिसके किनारे बैठा हूँ  
 
जिसके किनारे बैठा हूँ  
 
 
आज मैं यहाँ   
 
आज मैं यहाँ   
 
 
इस नदी में डूब जाए
 
इस नदी में डूब जाए
 
 
होंगे प्रफुल्लित ग्रामवासी
 
होंगे प्रफुल्लित ग्रामवासी
 
 
आऊंगा मैं यहाँ फिर
 
आऊंगा मैं यहाँ फिर
 
 
शिशिर और हेमंत में
 
शिशिर और हेमंत में
 
 
हरित वृक्ष और पौधों से भरी
 
हरित वृक्ष और पौधों से भरी
 
 
देखना चाहता हूँ मैं  
 
देखना चाहता हूँ मैं  
 
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"यह धरा"
" यह धरा "
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18:38, 27 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

कितनी गहरी रही ये खाई
मन काँपता डर से
अतल गहराइयाँ मन की
झाँकने का साहस कहाँ
दूर विजन एकांत में
सरिता कूल सुहाना दृश्य कैसा
नीम का वृक्ष
चारों ओर से गहरी खाई
काली सिंध बह रही मंथर
बीहड़ खाइयाँ
परिंदे पी पानी तलहटी का
आ बैठते नीम की टहनियों पर

बड़ी मुश्किल से
हम खाइयों के भय से पीछा छुड़ाते
किलोल करते ये परिंदे
हम को चिढ़ाते
चींटियाँ रेंगती भू-भाग पर
समझतीं प्राणियों को भी पेड़-पौधे
चढ़ती और गुदगुदा जिस्म पा
काट लेतीं त्वचा को
किनारे नदी के
भेड़ बकरियों का झुंड
साथ चरवाहा
नहाता नदी में निश्छल भाव से
निचोड़ पानी कपड़ों से
होता साथ बकरियों के
बादल घिर रहे आकाश में
अतृप्त हैं ये खाइयाँ

पावस में गहन ताप से
सूखी हैं ये, संतप्त हैं,
जल विहीना हैं
बादलों तुम बरसो यहाँ इतना
इस धारा को तृप्त कर दो
नदी काली सिंध पानी से लहलहाए
और ये ढूह
जिसके किनारे बैठा हूँ
आज मैं यहाँ
इस नदी में डूब जाए
होंगे प्रफुल्लित ग्रामवासी
आऊंगा मैं यहाँ फिर
शिशिर और हेमंत में
हरित वृक्ष और पौधों से भरी
देखना चाहता हूँ मैं
"यह धरा"