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कामिनी / नंद भारद्वाज

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तुम मेरे होने का आधार
आधी सामथ्र्य
आधी निबलाई
जीवन का आधार सार—
तुम पसरी सुकोमल माटी
खुले ताल में उमगती
कच्ची दूब सी चौफेर
वृक्षों पर खिलती हरियाली की आब
आसमान की परतों में घिरती
           तैरती बादली‚
घनी घटाओं के बीच
दमकती दामिनी साकार—
धोरों और चारागाहोम् पर
धारों – धार बरसता ठण्डा नीर
तुम नेह से भरपूर
           तलैया – बावड़ी!
तुम विगतों और गीतों की आधी बात
वह आधे बुलावे से पहले
आ खड़े होने का अचूक अभ्यास
वह जननी की गहरी सलोनी सीख
अग्नि के तप में तपी – सी कंचन कामिनी
उछाव से उठाती अजानी ज़िन्दगी का बोझ
रेतीले टीलों को उलांघती आर – पार
आई सजन के घर – बार
सम्हाली जीवन की ढीली डोर
हिम्मत बंधाई अजानी राह पर —
अम्थेरे में जगाये रखी आस
पोखती रही बिखरते कुल के कायदे
गुजरे बरसों की उलझी पहेली ओट
तुम कहां को सिधाई सोरठ – सोहनी
कहाँ अदीठ हो गया तुम्हार
            वह आधा सहकार
क्यों इतनी अनमनी – गुमसुम
इस तरुणाई में तीजनी!
क्यों बढ़ता हुआ – सा लग रहा है
पांव तले की धरती पर अधिभार
यह मेरे भीतर उतरती धीमी मार—
तुम किन हालात में बन गई असहाय
               कर्मठ कामिनी!
किस दावे पर सहेजूं तुम्हारी आन
किस बूते पर बचा लूं उघड़ती आबरू—
मेरी बांहों तक आ पहुंचने के उपरान्त
तुम कहां अदेखी हो गई‚
           ओ मानसी!
कहां अदृश्य हो गया तुम्हारा
वह आधा सहकार
तुम्हें खोजता फिरता हूँ
उजाड़ में दिशाहीन उद्भ्रान्त!
यह चारों दिशा में हलचलों से भरा – पूरा संसार
यह समन्दर में हिचकोले खाती
              बेपतवारी नाव‚
ये बालू के रेत की थाह में
उतरता दुर्गम पंथ —
यह अकाल और आंधियों से
लुटी पिटी धरती
ये बूंद – बूंद गहराता जुल्मी अंधेरा
ये सांय – सांय करती काली रात
ये आंधी और बग्गूलों से
हथ – भेड़ी करता मैं
मेरे पांवों पहुंचती आ
           मेरी मानिनी!
अंतस में गहरी दाज —
           और गाज़
कि बदल जाये
इस उजाड़ का आगोतर
जीवन का सुरीला बजे साज
सिरजें सांसों में नई जीवारी!