भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काम अधूरे पूरे करना बस यह सोचा था / विजय 'अरुण'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काम अधूरे पूरे करना बस यह सोचा था
मैं जब सर्जन के नश्तर के नीचे लेटा था।

उस में जो मेरा दायाँ था बायाँ दिखता था
आईना सच्चा होकर भी कितना झूटा था।

तुम जाम-ए-जमशेद की बातें क्या करते हो मित्र!
आज में मैं ने देखा कल जो आने वाला था।

बहुत अधिक सपने आंखों में कहाँ समाते हैं
सच इस लिए वह हुआ कि मेरा एक ही सपना था।

जिस ने भी अपने बचपन में साहस दिखलाया
मन से वह मज़बूत बहुत था, तन से बच्चा था।

अब कमरे बन गए वहाँ पर जहाँ था आम का पेड़
जिस लंबे-चौड़े आंगन में कभी मैं खेला था।

सच बोलो, क्या यही है मंज़िल, यही है क्या मंज़िल!
इस के निकट तो कई बार मैं 'अरुण' जी आया था।