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कायाकल्प / प्रताप सहगल

बीच शहर में एक तालाब था
और उसके आसपास
प्रार्थना की मुद्रा में खड़े
एकपदीय बगुले
धीरे-धीरे
तालाब बड़ा हुआ
उसकी अनुपात में
मत्स्य-कन्याएँ भी बढ़ीं
उनकी निगाहों में एक पैनापन आया
उन्होंने
प्रार्थना के छद्म में खड़े
बगुलों की उस जमात को देखा
जो थककर एकपदीय से द्विपदीय हो जाते।
एकपदीय बगुले की कहानी
उन्हें मालूम थी
घृणा थी उन्हें एकपदीय बगुलों से
द्विपदीय बगुलों की मुद्रा में
एक सम्मोहन था
मत्स्य-कन्याओं को
सम्मोहन-तंत्र पसंद आने लगा
द्विपदीय बगुलों ने भी
उन्हें एक समुद्र का स्वप्न दिया
स्वप्न के साथ
न कोई भय था
न आशंका
और न आतंक
वे द्विपदीय बगुलों की पीठ पर सवार हो गईं
और धीरे-धीरे
उन्होंने पूरे शहर को तालाब में बदल डाला।