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कारख़ाना और जिंदग़ी / सुशील मानव

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कारखाने से छूटते ही
भागता, हाँफता, पैडल पे जोर मारता रमेश
पहुँचता है घर
उसांसे उछल पड़ती
बाहर, मुँह से
सारा दम निचोड़ लेता कारखाना
जैसै मसलकर निकाल लेती है चरखी
पूरा रस ऊख से
खोइया सा खुद को फैला देता रमेश
रात की धूप में सूखकर
अगले दिन का ईंधन बनने के लिए
हाज़िरी के रजिस्टर में तारीखें खंदरता रमेश
कैलेन्डर हो गया है
गोया कि नहीं पड़ता कोई इतवार
उसकी जिंदग़ी में
गाँधी जयंती हो या स्वतंत्रता दिवस
बाहर से तालाबंद कारखाने के भीतर खटता रहता है रमेश
कभी गलती से भी ज़ुबान से छलक आये जो
‘छुट्टी’ जैसा शब्द
तो, अगले दिन से काम पर न आने की धमकी
सुखा देती उसके मुँह का थूक
नहीं हो पाता है, पत्नी का
दमहीन रमेश
न बच्चों का, न समाज का, न शहर का
दस बरस हुये इस शहर में आये
पर, एक कारखाना भर छोड़
कुछ भी तो नहीं देखा-दिखाया रमेश ने शहर में
वहीं बगल में रहकर भी नहीं देख पाये बच्चे
जंतर-मंतर, कुतुबमानीर और लालकिला
नात-बांत अलग ताना मारते
रमेश तो कबहुँ झुठहुँ का भी नहीं कहता कि छुट्टियों में दिल्ली घूम जाइए
और इन सबके बदले कारखाने से मिलता जो उसे
पगार के नाम पे
उसमें न मरता है रमेश का परिवार
न मोटाता है
कभी कोई गाँव से किसी परीक्षा या ईलाज के लिए आ जाता
उधार बाढ़ी से घर की व्यवस्था हो जाती
पर घर की अर्थव्यवस्था बिगड़ जाती
रमेश की जोरू बढ़ा​​ देती दाल में पानी
तरकारी में नमक
चावल में कंकड़
खाने वाले रिश्तेदार कहते
नहीं गया रमेश की जोरू का फुहरप्पन
अब भी लबर-धबर बनाती है खाना
अलबत्ता बच्चे खुश हो जाते
पाकर आँख में रगड़ने भर की मिठाई और नमकीन
सोचकर बहाने से दो दिन कुछ अच्छा खाने को मिलेगा
फिक्रमंद है रमेश रिश्तेदार द्वारा ले आई आधा किलो मिठाई के बरअक्श
कुछ नहीं तो सौ रुपए देना ही होगा
गोड़धराई में, कल विदाई में
पहले का लिया तो लौटाया नहीं
कल किसके सामने हाथ-मुँह जोड़ेगी वह
उखड़े फर्श पर बच्चों संग लेटी रमेश-बहू सोच रही