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"काली बिल्ली ढूंढ रही/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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उसे नहीं इससे मतलब  है कौन कहाँ लाचार ।
 
उसे नहीं इससे मतलब  है कौन कहाँ लाचार ।
  
घिरे अँधरे में भी इसकी
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घिरे अँधेरे में भी इसकी
 
चमक रही हैं आँखें,
 
चमक रही हैं आँखें,
 
जैसे रातों में दिखती हैं  
 
जैसे रातों में दिखती हैं  

21:55, 5 मार्च 2012 के समय का अवतरण

काली बिल्ली ढूँढ रही है, घर-घर आज शिकार ।
उसे नहीं इससे मतलब है कौन कहाँ लाचार ।

घिरे अँधेरे में भी इसकी
चमक रही हैं आँखें,
जैसे रातों में दिखती हैं
तपती हुई सलाखें,

धीरे-धीरे करती फिरती है नाख़ूनी वार ।
कोई दामन बचा न इससे, है कितनी ख़ूँखार ।

दीख रही इसकी आँखों में
सम्मोहन की ज्वाला,
जिसकी ओर निहारा, उसको
अपने वश कर डाला,

चुपके चुपके घूम रही है सरेआम बाज़ार ।
बैठी कभी तिजोरी घर में कभी सभा दरबार ।

घूम रही अपने पाँवों में
गूंगे घुँघरू बाँधे,
बड़े बड़ों के दामन अपने
पंजों के बल साधे,

बनते और बिगड़ते इसके दम पर कारोबार,
कितने हैं मज़बूत इरादे कितने हैं दमदार ।