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काली सलाखों में बंद / सोम ठाकुर

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रात, में घूमता रहा काली सलाँखों में बंद
कोई दरवाजा मिले तो कहीं, किसी ओर
मन को कोलाहल से
बाँधु में बाहर का शोर
बैठती गयी कोई
ध्रुवान्तर उड़ान मेरी पंखों में बंद

थूक गया फिर कोई
झर गया गुलाब
सहा फिर हवाओं ने
धुएनका नकाब
कटे हाथों के टीले
उधड़े वक्ष
प्रशन जड़ी खिड़कियाँ मेरी आँखों में बंद

उगी नही बोई हुई रौशनी
सन्नाटा पिए बंजर खेत
पीटते रहे गीली ख़ालो के ढोल
अंधे द्वीपों के प्रेत
मृत्यु - कथा बाँचते पहाड़ों पर
झुलस गया भोर का वसंत
नंगी शाखों में बंद