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काली / प्रकाश मनु

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काली की मां काली है
उतनी ही
जितनी खुद काली है-
तवे-सी स्याह!
यानि कि यकीन करें आप श्रीमान
कोई चित्रकार
उनके हाथ से छूकर ब्रश
भरने लगे रंग
तो चित्र पूरा हो सकता है मजे से।
हंसती है काली खिलखिलाकर
तो उस हंसी में
काली की मां के अक्स
नजर आ सकते हैं आपको साफ-साफ
अगर आप जरा सा गौर करें।

वैसी ही हंसी वैसा नमक
वैसी ही सधी, सीधी खूबसूरती
कि जिसे खूबसूरती से उतार दिया
काली की मां ने धरती पर
और यल्लो सामने खड़ी है हूबहू उसकी प्रतिलिपि-

आधा मकान
जो इधर दसेक दिन से बन रहा है मेरा
समझिए कि उठा है काली के कंधों पर
ईंटें उठा-उठाकर ला रही है काली
तसले पर तसले ढो रही है काली
कभी मिट्टी खोद रही है काली
कभी कुछ ठोंक-पीट रही है काली
यहां तक कि कभी-कभी मिस्त्री वाले अंदाज में
छीलने लग जाती है ईंट
तो सच्ची मुच्ची आप धोखा खा जाएं श्रीमान!

बाकी का आधा मकान जो
बना हुआ नजर आता है आपको
पहले कभी बनाया था काली की मां ने,
वही बेचूक फुर्ती वही अपनापा
यों कि जी-तोड़ मेहनत में
कोई नहीं किसी से कम
वातावरण को बनाए रखती हैं सरस
अपनी हंस-बोल हंसी से
...तो श्रीमान कहना मुक्तसर यह कि
धरती के नमक ने
पैदा किया काली की मां को
काली की मां ने
काली को।

उनमें है लचीली
फसलों का-सा लचीलापन
फूलों की सी चमक
हवाओं की लहक,
और सुघड़ता ऐसी
जैसे कुम्हार के चक्के से उतरते हैं बरतन
नये चकोर...!

क्यों जी?
काले रंग में क्यों नहीं हो सकता सम्मोहन?
और क्यों नहीं सुंदरता-हो सकती
सुंदर रानियों की
अगर वह गरीब है स्त्री
मजदूरिन-मेहनतकश।
जी करता है
उस धरती को प्रणाम करूं
जिसने पैदा किया काली को
काली की मां को।

और गुस्सा आता है
इस अबोधता पर
कि जिंदगी भर कोई ईंटें ही उठाता रहे
बगैर यह जाने
कि ईंटें उठाना ही नहीं हो सकता
किसी की जिंदगी का मकसद...

बस....बस, अब मैं ओट होता हूं श्रीमान
आप खुद ही देखें
कि काली की हंसी में
कैसे उतरती चली आती हैं
काली की मां
की हंसती आंखें...!

और देखें कि
जो धरती आपको दी गई है
वह इसलिए है रसवंत
कि उस पर काली है
अपने मजबूत हाथों से उठाती हुई मकान
समूची धरती भुरभुराती हुई
उर्वर सपनों से।