भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काळ बरस रौ बारामासौ (बैसाख) / रेंवतदान चारण
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:18, 8 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेंवतदान चारण |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बैसाखां तावड़ ब्रिथा काळ जद कटकाय
मारग चलतौ मांनखौ भव भव में भटकाय
माटी सूं सनमुख हुवै कोपै सूरज क्रुद्ध
झाळां सूं जगती जमीं जांणै छिड़ग्यौ जुद्ध
तावड़ तड़तड़तोह बरसातौ अगन भळैह
मुरझावण धर मुरधरा काळ ज करै कळैह
सूरज ने समझावती धोरां री धरतीह
कह दै बोली काळ ने मां सूं ना उलझीह