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काव्य मर गया हो जैसे / अंकिता जैन

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अब काव्य मर गया है जैसे
भीतर मेरे कहीं
क्या प्रेम नहीं बचा
या अहसासों की राख़ बन गई है
कितना कुछ था जीने को
जो तिल-तिल कर जलता रहा
हर दिन थोड़ा मर जाता
हर रात सिसकता रहा
कभी उम्मीद टूटी
कभी आस
कभी विश्वास टूटा
तो कभी पा जाने की प्यास
कभी दूर तक चली गई
कभी लौटी मैं घर को
पर कुछ कह न सकी
बिस्तर तकिया सब ख़ाली थे
कहीं हमारे तिनके भी बिखरे न थे
उन रातों को ढँक दिया था अमावस ने
जिनमें हम तुम जगते थे
जी भर उड़ेला था सब कुछ जहाँ
वहाँ अब सन्नाटे थे
इन सन्नाटों में कोई गुंजन फिर हो भला कैसे
अब भीतर कहीं मेरे
काव्य मर गया है जैसे