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( छंद 173, 174)
 
(173)
 
ठाकुर महेस, ठकुराइनि उमा-सी जहाँ,
लोक-बेदहूँ बिदित महिमा ठहर की।
 
भट रूद्रगन, पूत गनपति-सेनापति,
कलिकालकी कुचाल काहू तौ न हरकी।।
 
बीसीं बिस्वनाथकी बिषाद बड़ो बारानसीं,
बूझिये न ऐसी गति संकर-सहरकी।
 
कैसे कहै तुलसी बृषासुरके बरदानि ,
बानि जानि सुधा तजि पीवनि जहरकी।।
 
(174)
 
निपट बसेरे अघ औगुन घनेरे, नर-
नारिऊ अनेरे जगदंब! चेरी-चेरे हैं।
 
दारिद -दुखारी देबि भूसुर भिखारी -भीरू,
लोभ मोह काम कोह कलिमल घेरे हैं ।
 
लोकरीति राखी राम, साखी बामदेव जानि,
जनकी बिनति मानि मातु! कहि मेरे हैं।
 
महामारि महेसानि! म्हिमाकी खानि , मोद-
मंगलकी रासि , दास कासीबासी तेरे हैं।।
 
</poem>
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