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का कहि अपनी व्यथा सुनाऊँ / स्वामी सनातनदेव

राग पूर्वी, तीन ताल 17.7.1974

का कहि अपनी व्यथा सुनाऊँ
मन में जो-जो भाव उठत हैं, कैसे तुमहिं बताऊँ॥
जानत हो तुम जरनि जीयकी, का कहि ताहि जताऊँ।
जो यह जरनि सुहाय तुमहिं तो जरि-जरि ही सचु पाऊँ॥1॥
तुमसों प्रीति लगी है प्यारे! कैसे सो न निभाऊँ।
फिर जो मौज तिहारी वामें कैसे दखल दिखाऊँ॥2॥
तरसत है मन दरस-परसकों, पै का जोर जताऊँ।
जो न सुहाय तुमहिं तो कैसे हठ करि तुमहिं खिझाऊँ॥3॥
तरसन ही सरसन है मोकों जो मैं तरसत भाऊँ।
जनम-जनम तरसाओ प्यारे! यही सुहाग मनाऊँ॥4॥
सदा तिहारो रहूँ, तुमहिकों अपनो करि लखि पाऊँ।
यही एक वर देहु दयानिधि! तुम बिनु और न ध्याऊँ॥5॥