भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितना भला होता रेगिस्तान / अमित कल्ला

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:04, 5 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थाम लेती हैं उंगलियाँ
पानी की
रंगों से भरी
गाथाएं

रामभरोसे ही सही
कोरती उड़ते पंख
आसमान के,
बातचीत की बिसातों पर
अक्षरों की बुनाई से
छूटे अजनबी रेशे
मनमानी
सुधि जगाते हैं

आख़िर
कितना भला होता
रेगिस्तान
अपने बिछोने पर
यात्राओं के
रूखे पगों को
नम करता

गहरे - गहरे
साजों की संगत का
अर्ध्य देता है ।