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कितने उलझ गए हैं / रोहित रूसिया

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कितने उलझ गए हैं
हम-तुम
खुद को ज़रा बदलते हैं

कैसे हम पहचाने चेहरे
चेहरों पर
चेहरों के पहरे
एक जिस्म में इतने इन्सां
जाने कैसे पलते हैं

रिश्ते
जो फौलादों से थे
खुशियों के अनुवादों से थे
साथ समय के
धीमे-धीमे
मोम की तरह गलते हैं

कितने उलझ गए हैं
हम-तुम
खुद को ज़रा बदलते हैं