भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितने गीत और लिखने हैं / राकेश खंडेलवाल

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:15, 7 फ़रवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = राकेश खंडेलवाल }} आह न बोले, वाह न बोले<br> मन में है कुछ च...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आह न बोले, वाह न बोले
मन में है कुछ चाह न बोले
जिस पथ पर चलते मेरे पग
कैसी है वो राह न बोले
फिर भी ओ आराध्य हृदय के पाषाणी ! इतना बतला दो
कितने गीत और लिखने हैं ?

कितने गीत और लिखने हैं, लिखे सुबह से शाम हो गई
थकी लेखनी लिखते लिखते, स्याही सभी तमाम हो गई

सँझवाती, तुलसी का चौरा, ले गुलाब, गुलमोहर चन्दन
मौसम की हर अँगड़ाई से मैने किये नये अनुबन्धन
नदिया, वादी, ताल, सरोवर, कोयल की मदमाती कुहु से
शब्दों पर आभरण सजा कर, किया तुम्हारा ही अभिनन्दन

किन्तु उपासक के खंडित व्रत जैसा तप रह गया अधूरा
और अस्मिता दीपक की लौ में जलकर गुमनाम हो गई

अँधियारी रजनी में नित ही रँगे चाँदनी चित्र तुम्हारे
अर्चन को नभ की थाली में दीप बना कर रखे सितारे
दिन की चौखट पर ऊषा की करवट लेकर तिलक लगाये
जपा तुम्हारा नाम खड़े हो, मैने निमिष निमिष के द्वारे

बन आराधक मैने अपनी निष्ठा भागीरथी बनाई
लगा तुम्हारे मंदिर की देहरी पर वह निष्काम हो गई

है इतना विश्वास कि मेरे गीतों को तुम स्वर देते हो
सागर की गहराई, शिखरों की ऊँचाई भर देते हो
भटके हुए भाव आवारा, शब्दों की नकेल से बाँधे
शिल्पों के इंगित से ही तुम उन्हें छंदमय कर देते हो

कल तक मेरे और तुम्हारे सिवा ज्ञात थी नहीं किसी को
आज न जाने कैसे बातें यह, बस्ती में आम हो गईं

जो अधरों पर सँवरा आकर, एक नाम है सिर्फ़ तुम्हारा
और तुम्हारी मंगल आरती से गूँजा मन का चौबारा
हो ध्यानस्थ, तुम्हारे चित्रों से रँग कर नैनों के पाटल
गाता रहा तुम्हीं को केवल, मेरी धड़कन का इकतारा

किन्तु न तुमने एक सुमन भी अपने हाथों दिया मुझे है
जबकि तुम्हारे नाम-रूप की देहरी तीरथ धाम हो गई

आशीषों की अनुभूति को मिला नीड़ न अक्षयवट का
तॄषित प्राण की तॄष्णाओं को, देखा, हाथ रुका मधुघट का
दूर दिशा के वंशीवादक ! तान जहाँ सब विलय हो रहीं
आज उसी बस एक बिन्दु पर साँसों का यायावर अटका

स्वर था दिया, शब्द भी सौंपे, और न अब गीतों का ॠण दो
एक बात को ही दोहराते अभिव्यक्तियाँ विराम हो गईं

अनुभूति को अहसासों को, बार बार पिंजरे में डाला
एक अर्थ से भरा नहीं मन, अर्थ दूसरा और निकाला
आदि-अंत में धूप-छाँह में, केवल किया तुम्हें ही वर्णित
अपने सारे संकल्पों में मीत तु्म्हें ही सदा संभाला

मिली तुम्हारे अनुग्रह की अनुकम्पा, शायद इसीलिये तो
सावन की काली अमावस्या, दोपहरी की घाम हो गई

कितने गीत और लिखने हैं ?