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कितने हाथ सवाली हैं / ज़फ़र ताबिश

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कितने हाथ सवाली हैं
कितनी जेबें ख़ाली हैं

सब कुछ देख रहा हूँ मैं
रातें कितनी काली हैं

मंज़र से ला-मंज़र तक
आँखें ख़ाली ख़ाली हैं

उस ने कोरे-काग़ज़ पर
कितनी शक्लें ढाली हैं

सिर्फ़ ज़फ़र ‘ताबिश’ हैं हम
‘ग़ालिब’ ‘मीर’ न ‘हाली’ हैं