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किताबें / सुभाष शर्मा

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एक दिन किताब खोलते ही
मेहँदी रचे दो हाथ नजर आए
और शब्द चित्र प्रेम-पत्र
जो सुगंधित कर रहे थे
पूरी किताब/आलमारी और कोठरी ।
मैंने किताब बंद कर दी
रखने के लिए सुगंध की धरोहर
थोड़ी देर में खोली
दोनों हाथों में मेहँदी
आपस में मिलने से
लाल भभूक हो गई थी
जीवन-रेखा और हृदय-रेखा के बीच
आँखें उग आई थीं
भाग्य-रेखा धनुष बन गई थी
और सूर्य-रेखा तीर
उँगलियाँ भरे तरकश-सी खड़ी थीं
दाहिना अँगूठा
कभी एकलव्य की याद दिलाता था,
कभी द्रोणाचार्य की ।
मणिबंध पर
राखी/चूड़ियों की जगह
निकल रही थी बरगद की जड़ें
तब मेरे सपने साकार होने लगे
शून्य आकार होने लगे ।

चाकू-सी किताबों के
तेज धारदार शब्दों से
मैं बनाना चाहता हूँ अपना घर
अन्यथा किताबों के पन्ने फड़फड़ाने से
भय है
देश के टखनों और सपनों
के टूटने का

किताबें हर चौराहे-नुक्कड़ पर
जोर-जोर से कह रही हैं –
ऐ लेखक मित्रो !
बुआई का मौसम शुरू हो गया है
कलम की नोक से
स्याही की बूँदें नहीं,
नए बीच गिराओ
हर फूल के साथ
काँटे भी बिछाओ
अन्यथा कविता-कहानी का
गर्भपात मत करो,
सिर्फ जज्बात मत भरो
पृष्ठभूमि की माटी साक्षी है –
क्रांति
खूब गेहूँ उपजाकर
नारों की फसल काटकर,
पुतले जलाकर,
इश्क-हुस्न की लोरी सुनाकर,
साकी-जाम छलकाकर नहीं,
ताजी गरम रोटी
के दोनों फलकों को
कृपाण ढाल बनाकर ही लाई जा सकती है ।

अब किताबों से निकलकर
शब्दों की असंख्य कतारें
लगती जा रही हैं

रातें लाली पड़ते ही
पिघलती जा रही हैं
कोणों, आयतों और वर्गों को सुनकर
बेचैन हो रहे हैं शैतान
वे समझने लगे हैं
किताबें आवाम की आवाज हैं
लोगों के आह्वान पर
वे दुकानों से निकलकर
आ गई हैं सड़कों पर ।