Last modified on 3 अक्टूबर 2015, at 00:26

किताबों के कीड़े / निरंकार देव सेवक

तुम बनो किताबों के कीड़े,
हम खेल रहे मैदानों में।

तुम घुसे रहो घर के अंदर,
तुमको है पंडित जी का डर।
हम सखा तितलियों के बनकर
उड़ते फिरते उद्यानों में!
तुम बनो किताबों के कीड़े
हम खेल रहे मैदानों में।

तुम रटो रात-दिन अंगरेजी
कह ए बी सी डी ई एफ जी,
हम तान मिलाते हैं कू-कू,
करती कोयल की तानों में!
तुम बनो किताबों के कीड़े
हम खेल रहे मैदानों में।

हम रहते फूलों, कलियों में,
तुम रहते गंदी गलियों में,
हम खेल रहे बन ती-ती-ती
तुम सड़ते रहो मकानों में।
तुम बनो किताबों के कीड़े
हम खेल रहे मैदानों में।

तुम दुबले-पतले दीन-हीन,
हममें तुम जैसे बनें तीन।
हम शैतानों के नेता हैं,
पर पास सदा इम्तहानों में।
तुम बनो किताबों के कीड़े
हम खेल रहे मैदानों में।

तुम लिए किताबों का बोझा,
हम उछल-कूद खाते गोझा,
तुममें-हममें है भेद वही,
जो मूर्खों में, विद्वानों में।
तुम बनो किताबों के कीड़े
हम खेल रहे मैदानों में।