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किनारों पर आकर भी (मुक्तक) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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1
बीते पल की यादों में, इक सपना बुनता हूँ
उसकी गर्म आहटों को, फिर जीभर सुनता हूँ
रूप और सौरभ में डूबे, हैं उपवन के फूल बहुत
होगा वह अभागा जिसे, मैं अधरों से चुनता हूँ।
-0-29-5-1977( शिवालिक स्रोत-23 मई 1983)
2
कलियों को खिलते देखा पर, पर अधरों जैसी बात न थी।
घोर घटा में सब कुछ डूबा; पर अलकों जैसी रात न थी।
सागर में डूबे तो कुछ के, प्राण हैं भले ही बच जाते;
नयनों में जो आकर डूबा, समझो क़िस्मत भी साथ न थी।
-0- (14-11-1977)-शिवालिक स्रोत(23 मई, 1983)
3
कटती ज़िन्दगी कैसे , बेचारा फूल क्या जाने
गुज़रती दिल पर क्या-क्या, यह सब खार से पूछो।
किनारों पर आकर भी कुछ तो डूब जाते हैं
डूबकर भी जो बच निकले,मझधार से पूछो।
2-18-06-1978 (अक्तुबर 1978 राष्ट्रसेवक गौहाटी,आकाशवाणी अम्बिकापुर- 20-12-1999)
4
जीवन की लम्बी राहों पर गर कोई भी साथ नहीं।
हार ना जाना मन, अकेला चलना कोई बात नहीं।
बीते कल की लेकर यादें, तुम आगे बढ़ते जाना ।
जब उमड़ें आँखों में आँसू, तनिक ठहर फिर मुस्काना ।
-0-15-02-1979
5
तेरे नक़्शे-क़दम पे जब-जब भी चल पाया हूँ
आँसुओं के सागर को तैरकर घबराया हूँ ।
चुपके से आकर छुप जाओ मेरे ही दिल में
मुद्दतों बाद अए दर्द , तुझे ढूँढ पाया हूँ ।
6
वह लाज में डूबकर सिमटना तेरा
नज़रों ही नज़रों में लिपटना तेरा ।
गुलाबी चाँद उगा नशीली साँझ में
देखते सब राह में ठिठकना तेरा ।
7
हम तुम्हारे इस जहाँ में, इस कदर अब खो गए ।
अपना ही हमको पता न खुद से पराए हो गए ।।
साया तक भी बेमुरव्वत, उम्रभर छलता रहा ।
नींद हमको आ गई तो संग में अरमाँ सो गए ॥
-0-7-11-79
8
आँचल में कभी छुपा लेते तो क्या होता
दो घड़ी अपना बना लेते तो क्या होता ।
अपने हाथों से तुम उजाड़ देते उपवन
काँटों को भी गले लगा लेते तो क्या होता
9
तुमको मेरी बात, जब-जब याद आई होंगी
आँखों मे दर्द की घटा-सी छाई होगी ।
सपने से जागकर , जब टूटी होगी नींद
आँखें तुम्हारी और भी भर आई होंगी ।
-0-(29-09-80)
10
ज़िन्दगी में हार -जीत कोई बात नहीं
सफ़र में दिन या रात कोई बात नहीं ।
सदियों से अकेले चलते आए हम
हम सफ़र न रहा साथ, कोई बात नहीं ।
-0-23-1-81आकाशवाणी अम्बिकापुर-20-12-99