भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कियां सहेजां सपना बां री / मंगत बादल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKCatGeet}} {{KKRachna |रचनाकार=मंगत बादल |संग्रह= }} {{KKCatRajasthaniRachna...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
 
म्हांरो डांव आवै कोनी पण,
 
म्हांरो डांव आवै कोनी पण,
 
डांई देता थकग्या
 
डांई देता थकग्या
बंा रो निसानो चूकै कोनी,
+
बां रो निसानो चूकै कोनी,
 
खेलै  मार-दड़ी ।  
 
खेलै  मार-दड़ी ।  
  

18:04, 30 अप्रैल 2016 का अवतरण

 
कियां सहेजां सपना बां री,
बिखरी लड़ी-लड़ी !
कुण नै देवां दोस ?
कबीरा-
कूवै भांग पड़ी ।

भला बखत हा
थे तो कैग्या
आखर-आखर अणमोल ।
सांच-झूठ
अेक लागै अब
मचरी रांपट-रोळ ।
म्हांरो डांव आवै कोनी पण,
डांई देता थकग्या
बां रो निसानो चूकै कोनी,
खेलै मार-दड़ी ।

चाल-चाल पग थकग्या,
चादर लीरम-लीर हुई ।
ढाई आखर भण्यां बिना,
जिनगाणी भीर हुई ।
रोय-रोय जद बिथा कही,
म्हैं गीतां में-
सुण-सुण दुनियां मजा लेवै
अर हांसै खड़ी-खड़ी ।