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किवाड़ / संध्या गुप्ता

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इस भारी से ऊँचे किवाड़ को देखती हूँ
अक्सर
इसकी ऊँची चौखट से उलझ कर सम्भलती हूँ
कई बार

बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं !