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किससे कहूँ कि खेतों से हरियाली ग़ायब है / डी. एम. मिश्र

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किससे कहूँ कि खेतों से हरियाली ग़ायब है
मेरे बच्चों के आगे से थाली ग़ायब है

निकली थी वो काम ढूँढने लौटी नहीं मगर
कब से खोज रहा हूँ मैं घरवाली ग़ायब है

कैसे मानूँ राम अयोध्या आज ही लौटे थे
चारों तरफ़ अँधेरा है दीवाली ग़ायब है

हम तो भूख-प्यास पर ताले मार के बैठे हैं
सुबह हुई है मगर चाय की प्याली ग़ायब है

उधर लुटेरे देश लूटकर देश से भाग रहे
चौकीदार सो रहा है रखवाली ग़ायब है

वो इन्साफ़ माँगने वाला स्वर क्यों मौन हुआ
क़त्ल हो गया होगा तभी सवाली ग़ायब है