Last modified on 22 जून 2017, at 14:57

किसी के सामने खुलकर कभी में रो नहीं पाया / शिवशंकर मिश्र

किसी के सामने खुलकर कभी मैं रो नहीं पाया
करीब इतना भी कोई दोस्त मेरा हो नहीं पाया

हिचक कोई, शरम कोई, वहम कोई कि शक कोई
रहा कुछ दरमियाँ ऐसा, उठा जिस को नहीं पाया

उसे लूटेगा कोई क्या जिसे लूटा नसीबों ने
कभी बेफिक्र होकर ही किसी दिन सो नहीं पाया

लगा दी पीठ तो अपनी जमाने भर के बोझों को
अकेला लाश लेकिन कोई अपनी ढो नहीं पाया

मेरे पीछे रहा हरदम मेरे साये से भी ज्यादा
वहीं था साथ ही मौजूद, देखा तो नहीं पाया

बहुत चाहा कोई सीने से मेरा दिल अलग कर दे
नहीं पाया कोई कातिल ही ऐसा जो नहीं पाया

अगर जीना यही जीना, बुरा मरना ही क्या ‘मिशरा’
हुआ मेरा न कोई, मैं किसी का हो नहीं पाया