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किसी भी बच्चे की माँ के लिए / सुकेश साहनी

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माँ
ये लोग मुझे तेरे उपनाम से जानते हैं
पर,तू
यहाँ भी
मेरे अंग-संग है-
मानते ही नहीं,
मैं तो रोज ही
खान में सैकड़ों फीट उतरते हुए
तुम्हारे वात्सल्य की उष्मा में
नहाता हूँ
पटरियों पर फिसलती ट्रालियांँ
भर-भरकर परोसती हो
हम सबके लिए,
ये लोग इसे
मेरी सनक मानते हैं
पर,मैं
गेहूं की बालियों
चमकते चाँद
उगते सूरज
मिट्टी से उठती
सौंधी गंध की
बात करता हूँ,
मैं जिंदा होने का
तर्क देता हूँ
जोर से कहता हूँ-
‘‘हूँ’’
और
‘‘रहूँगा”
“माँ!’’
तूने अपने दूध के एवज में
अपने बच्चों से
इसके सिवा कुछ चाहा भी तो नहीं,
ये लोग
तुझे खत लिखने की बात करते हैं
पर, मैं
लिखता हूँ कविता-
किसी भी बच्चे की
माँ के लिए
फिर ये लोग
तुझे
बाँटने की बात
क्यों करते हैं?
माँ!!