http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%AC%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%AC_%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%82_%E0%A4%B6%E0%A4%B9%E0%A4%B0-%E0%A4%8F-%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%81_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%B0_%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE_%E0%A4%A5%E0%A4%BE_/_%E0%A4%85%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0_%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%80&feed=atom&action=historyकिसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था / अख़्तर होश्यारपुरी - अवतरण इतिहास2024-03-28T18:20:28Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%AC%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%AC_%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%82_%E0%A4%B6%E0%A4%B9%E0%A4%B0-%E0%A4%8F-%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%81_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%B0_%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE_%E0%A4%A5%E0%A4%BE_/_%E0%A4%85%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0_%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%80&diff=165680&oldid=prevसशुल्क योगदानकर्ता ३: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अख़्तर होश्यारपुरी }} {{KKCatGhazal}} <poem> कि...' के साथ नया पन्ना बनाया2013-11-03T09:10:09Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अख़्तर होश्यारपुरी }} {{KKCatGhazal}} <poem> कि...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
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|रचनाकार=अख़्तर होश्यारपुरी<br />
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<poem><br />
किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था<br />
ज़मीं थी पहलू में सूरज इक कोस पर रहा था<br />
<br />
हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं<br />
मैं अपनी मिट्टी से फूल बन कर उभर रहा था<br />
<br />
अजीब सरगोशियों का आलम था अंजुमन में<br />
मैं सुन रहा था ज़माना तन्क़ीद कर रहा था<br />
<br />
वो कैसी छत थी जो मुझ को आवाज़ दे रही थी<br />
वो क्या नगर था जहाँ मैं चुप-चाप उतर रहा था<br />
<br />
मैं देखता था कि उँगलियों में दिए की लौ है<br />
मैं जागता था कि रंग ख़्वाबों में भर रहा था<br />
<br />
ये बात अलग है कि मैं ने झाँका नहीं गली में<br />
ये सच है कोई सदाएँ देता गुज़र रहा था<br />
<br />
ये चंद बे-हर्फ़-ओ-सौत ख़ाके मिरा असासा<br />
मैं जिन को ग़ज़लों का नाम दे कर सँवर रहा था<br />
<br />
ज़माना शबनम के भेस में आया और दुआ दी<br />
मैं ज़र्द-रूत में जब अपनी बाहों में मर रहा था<br />
<br />
मुझे किसी से नक़ब-ज़नी का ख़तर नहीं था<br />
मुझे ‘अख़्तर’ अपने ही जस्द-ए-ख़ाकी से डर रहा था<br />
</poem></div>सशुल्क योगदानकर्ता ३