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किसे दिखाऊँ जख़्म हृदय का गहरा-गहरा है / डी. एम. मिश्र

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किसे दिखाऊँ जख़्म हृदय का गहरा-गहरा है
तिनका-तिनका जीवन वह भी बिखरा-बिखरा है।

नदी सूखकर केवल बालू-बालू बची हुई
रहा शेष इक चेहरा वह भी उतरा-उतरा है।

किसके आगे रोऊँ जाकर किससे गिला करूँ
मेरे लिए तो जग सारा ये बहरा-बहरा है।

लोग यहाँ के यारो घोड़ा बेच के सोते हैं
चोर ले गये दौलत सारी पहरा-पहरा है।

बड़ी-बडी उम्मीदें चंद पलों में टूट गयीं
कहाँ खिलाऊँ फूल यहाँ तो सहरा-सहरा है।