Last modified on 14 अक्टूबर 2011, at 22:46

किस्सा मछली मछुए का-3 / अलेक्सान्दर पूश्किन

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: अलेक्सान्दर पूश्किन  » संग्रह: किस्सा मछली मछुए का
»  किस्सा मछली मछुए का-3

बूढ़ा फिर सागर पर आया
कुछ बेचैन उसे अब पाया,
मछली को फिर वहाँ पुकारा
वह तो तभी चीर जल-धारा,
आई पास, और यह पूछा-
"बाबा, क्यों है मुझे बुलाया?"

बूढ़े ने झट शीश झुकाया-
"सुनो बात तुम जल की रानी
तुम्हें सुनाऊँ व्यथा-कहानी,
मेरी बुढ़िया मुझे सताए
उसके कारण चैन न आए,
नहीं गँवारू रहना चाहे
ऊँचे कुल की बनना चाहे ।"
बोली मछली- जी न दुखाओ
उसको ऊँचे कुल की पाओ ।"

बूढ़ा वापस घर को आया
दृश्य देख वह तो चकराया,
भवन बड़ा-सा सम्मुख सुन्दर
बुढ़िया बाहर दरवाज़े पर,
खड़ी हुई, बढ़िया फ़र पहने
तिल्ले की टोपी औ' गहने,
हीरे-मोती चमचम चमकें
स्वर्ण मुँदरियाँ सुन्दर दमकें,
लाल रंग के बूट मनोहर
दाएँ-बाएँ नौकर-चाकर,
बुढ़िया उनको मारे, पीटे
बल पकड़कर उन्हें घसीटे।

बूढ़ा यों बुढ़िया से बोला-
"नमस्कार, देवी जी, अब तो
जो कुछ चाहा, वह सब पाया
चैन तुम्हारे मन को आया?"

बुढ़िया ने डाँटा, ठुकराया
उसे सईस बना घोड़ों का
तुरत तबेले में भिजवाया।

बीता हफ़्ता, बीत गए दो,
आग बबूला बुढ़िया ने हो
फिर से बूढ़े को बुलवाया,
उसको यह आदेश सुनाया-
" आ, मछली को शीश नवाओ
मेरी यह इच्छा बतलाओ,
बनना चाहूँ मैं अब रानी
ताकि कर सकूँ मनमानी ।"

बूढ़ा डरा और यह बोला-
"क्या दिमाग़ तेरा चल निकला ?
तुझे न तौर-तरीका आए
हँसी सभी में तू उड़वाए ।"

बुढ़िया अधिक क्रोध में आई
औ' बूढ़े को चपत लगाई-
"क्या बकते हो, ऐसी जुर्रत ?
मुझसे बहस करो, यह हिम्मत ?
तुरत चले जाओ सागर पर
वरना ले जाएँ घसीटकर ।"


मूल रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु