भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कीजै ज्ञान भानु कौ प्रकास गिरि-सृंगनि पै / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:13, 11 मार्च 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर' |संग्रह=उद्धव-शतक / जगन्नाथ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कीजै ज्ञान भानु कौ प्रकास गिरि-सृंगनि पै
ब्रज मैं तिहारी कला नैंकु खटिहैं नहीं ।
कहै रतनाकर न प्रेम-तरु पैहै स्सोखि
यकी डार-पात तृन-तूल घटिहैं नहीं ॥
रसना हमारी चारु चातकी बनी हैं ऊधौ
पी-पी कौ बिहाई और रट रटिहैं नहीं ।
लौटि-पौटि बात कौ बवंडर बनाबत क्यों
हिय तैं हमारे घनश्याम हटिहैं नहीं ॥58॥