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कीर्तन / विजय गुप्त

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आओ, आओ आखेटक महाराज
धरती, अम्बर, नदी, सरोवर
सब पर राज जमाओ आप ।

बुद्धिजीवी खोपडि़यों में,
घुस-घुस जाओ
राग-साज, बोली-बानी पर
कस कर लात जमाओ आप ।
आओ-आओ...

हम चाकर हैं, पेट के मारे
आप बनिक हम, बनिज बिचारे
अगिन पेट की खूब जलाकर
अपनी रोटी सेंको आप ।
आओ-आओ...

हम झुके माथ, लुच्ची आशाएँ
टुच्चा जीवन, खोटी तृष्णाएँ
मर्मस्थल पर घात लगाकर
चुन-चुन बाण चलाओ आप ।

आओ-आओ आखेटक महाराज