Last modified on 29 मई 2014, at 12:52

कीलित यहाँ मन भी / राजेन्द्र गौतम

मिटने लगा है फ़र्क क्यों
जंगल, नगर, घर में ।

हर और जलता दाह है उठते बगूले हैं
है कौन-सा कोना यहाँ जो चैन देता हो
लावा लगा चलने गगन छूने लगीं लपटें
पल कौन-सा ऐसा नहीं जो जान लेवा हो
जब भी घिरे हैं मेघ
करका पात होता है
क्या बूँद भी जल की नहीं इस क्रुद्ध अम्बर में ।

इन्सान छिप कर भी यहाँ पर रह नहीं सकता
हर ओर आदमख़ोर चीते, बाघ रहते हैं
कैसे भला कोई यहाँ निश्चित हां घूमें
हर झाड़ में दुबके विषैले नाग रहते हैं
बेशर्म मौसम
हर गली की आबरू लूटे
बिकते शहर-कली, बनी है और नाजिर में ।

हर शाख पर फन तानते हैं यो यहाँ काँटे
सीचा गया ज्यों ज़हर से उद्यान यह सारा
तन की नहीं कुछ बात है कीलित यहाँ मन भी
बिखरी हुई है ओस भी बन प्रात में पारा
चौपट हुई नगरी
अन्धेरे राज में ऐसे
खोने लगी पहचान हीरे और पत्थर में ।