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कुँअर उदयसिंह अनुज के दोहे-5 / कुँअर उदयसिंह 'अनुज'

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देख देख कर सीरियल, आये कितने मोड़।
पूत जना अपने लिए, बहू उड़ी ले फोड़।

धूल फाँकती ढोलकी, और मौन है चंग।
थमी थिरकती उँगलियाँ, मीठी लय है भंग।

इंटरनेट कहार सा, फेंक रहा है जाल।
अब 'सुजान' चलने लगी, 'घनानन्द' से चाल।

माँ लोरी है साँझ की, माँ प्रभात का गीत।
गिर-पड़ चलना सीखता, उस छुटपन की मीत।

गरमी में ठंडी हवा, जाड़े मीठी धूप।
बारिश में छत सी तने, माँ के कितने रूप।

बया सरीखी माँ बुने, छोटे-छोटे ख़्वाब।
आना-पाई जोड़कर, रहती ढाँपे आब।

ओर-छोर अज्ञात है, ऐसा पारावार।
जो डूबा वह तर गया, पा अम्मा का प्यार।

शीश झुकाकर टाँकती, लुगड़ी में पैबंद।
अनपढ़ अम्मा लिख रही, संघर्षों के छंद।

कुदरत के वरदान को, रहे देख सब दंग।
माँ चंदन के पेड़-सी, बेटा भले भुजंग।

ताँता कष्टों का लगा, कभी न मानी हार।
दिखलाती उनको रही, माँ बाहर का द्वार।