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(कविवर चंद्र कुँवर बर्त्वाल को समर्पित शब्द-पुष्प)
प्रेम उसे सीढ़ी खेतों से
वह वृक्ष लता अनुरागी था
 
कुर्सी, कोलाहल, ध्वनि-करतल टंकण,
मुद्रण और प्रकाशन विरक्ति
उसे मान प्रतिष्ठा से
सरस्वती में रत निष्ठा से
 
सरस्वती का प्रखर पुत्र
वह धन समृद्धि से वैरागी था
 
 
बुग्यालों में विरह जिया वह
नदी झरनों में उसका रुदन झरा
उन्मत्त हिरन से मन ने उसके
शैल-पुष्प-लता- शृंगार किया
 
धवल शिखर से गाया उसने
वह प्रेम गीत का वादी था
 
सिखलाने को सत्त्व प्रेम समाश्रित
वह इस पुण्य हिमधरा पर आया
हिम आलिंगन, धरा का चुम्बन
और पक्षियों का वह मंगल गान
 
अल्प काल रहा फिर भी
वह जीवंत कल्पशक्ति उन्मादी था
 
उसके छंदों की अनुपस्थिति से
सूखी नदियाँ पतझड़ नंदन वन
रूखी हो गई सरित वाहिनी
सूने बसंत पावस ऋतु परिवर्तन
 
प्रेमी संन्यासी और वियोगी वह
नीर समीर प्रतियोगी था
 
जीवन गान पढ़ाने आया था
अध्यात्म-प्रेम-निष्काम-कर्म
कर्त्तव्य, बोध विस्तृत धर्म
वह पाठ भी था पाठशाला भी
 
मंद सुगंध सुदूर शैल मंदिर में
वह पावन प्रतिष्ठापित योगी था 
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