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कुंज-ए-क़फ़स से पहले घर अपना कहाँ न था / लाला माधव राम 'जौहर'

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कुंज-ए-क़फ़स से पहले घर अपना कहाँ न था
आए यहाँ तो हौसला-ए-आशियाँ न था

तुझ को समझ के ख़्वाब में पहुँचा मैं जिस जगह
देखा जो आँख खोल के तो कुछ वहाँ न था

इक इक क़दम पे अब तो क़यामत की धूम है
आगे तो ये चलन कभी ऐ जान-ए-जाँ न था

ठहरी जो वस्ल की तो हुई सुब्ह शाम से
बुत मेहरबाँ हुए तो ख़ुदा मेहरबाँ न था

क्यूँकर क़सम पे आज मुझे ए‘तिबार आए
किस दिन ख़ुदा तुम्हारे मिरे दरमियाँ न था

तोड़ा जो फूल बुलबुल-ए-शैदा के सामने
क्या तेरे दिल में दर्द कुछ ऐ बाग़बाँ न था