भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ अधिक व्यस्त रहता हूँ / देवेंद्रकुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं
कुछ अधिक व्यस्त
रहता हूं
और इनकी छोटी-छोटी बातें-
बहुत खुंदक चढ़ती है।

लेने-छीनने लायक चीजें
पड़ी धूल खायं
घी के घड़े गिर जायं
क्या मजाल जो हाथ हिलाये।
क्योंकि वह तो है
बूढ़ी और बीमार
खांसी और गठिया से लाचार
बांटते-लेते समय
चुप-गुमसुम
गोया
लेने-देने की पूरी जिम्मेदारी
है किसी और की।

चुस्ती बुढ़ापे की
देखनी हो
तो
कहीं मेरा बटन गिर जाये
मैला रूमाल
जेब में छूट जाये
भूल जाऊं कंधा बेजगह!
बच्ची की फ्राक से
टूट गिरे
फीते और फूल,
नाड़े का बेकार टुकड़ा
लपककर उठायेगी
खर्च देगी जतन सारा।

शरारत पुरानी
याद आ जाये
कभी
मेरा लिखा-बेलिखा कागज
उठाएगी
पिता के समने खासकर
वह छीनेंगे
-‘छोड़...काला आखर..’
खुश हो कहेगी
जानते भी हो बनियान
का गला है किधर?
बताओ तो पजामे में
है कितना लम्बा नाड़ा?

मैं पूछता हूं
समझते क्या हैं मुझे
ये लोग!
बहुत किया
तो चाहा भी क्या ताउम्र तपने के बाद
वरदान की तरह
कभी-कभी
जल्दी में फेंकी
और
चूमकर उठाई गईं
नजरें!
क्या करूं
कुछ ज्यादा ही
व्यस्त रहता हूं।