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कुछ ग़म-ए-जानाँ कुछ ग़म-ए-दौराँ दोनों मेरी ज़ात के नाम / मलिकज़ादा 'मंजूर'

कुछ ग़म-ए-जानाँ कुछ ग़म-ए-दौराँ दोनों मेरी ज़ात के नाम
एक ग़ज़ल मंसूब है उस से एक ग़ज़ल हालात के नाम

मौज-ए-बला दीवार-ए-शहर पे अब तक जो कुछ लिखती रही
मेरी किताब-ए-ज़ीस्त को पढ़िए दर्ज हैं सब सदमात के नाम

गिरते ख़ेमे जलती तनाबें आग का दरिया ख़ून की नहर
ऐसे मुनज़्ज़म मंसूबों को दूँ कैसे आफ़ात के नाम

उस की गली से मक़तल-ए-जाँ तक मस्जिद से मय-ख़ाने तक
उलझन प्यास ख़लिश तन्हाई कर्ब-ज़दा लम्हात के नाम

सहरा ज़िंदाँ तौक़ सलासिल आतिश ज़हर और दार ओ रसन
क्या क्या हम ने दे रखे हैं आप के एहसानात के नाम

रौशन चेहरा भीगी ज़ुल्फ़ें दूँ किस को किस पर तरजीह
एक क़सीदा धूप का लिक्खूँ एक ग़ज़ल बरसात के नाम

जिन के लिए मर मर के जिए हम क्या पाया उन से ‘मंजूर’
कुछ रूसवाई कुछ बद-नामी हम को मिली सौगात के नाम