भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ देखा नहीं तूने बुराई के अलावा / ओम प्रकाश नदीम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ देखा नहीं तूने बुराई के अलावा ।
क्या जाने तू क्या हूँ मैं शराबी के अलावा ।

इस भीड़ में जो भी हैं वो नादाँ हों कि दाना,
सब महव-ए-तमाशा हैं मदारी के अलावा ।

पढ़ने में नहीं आती है रिश्तों की इबारत,
कुछ भी नहीं बाक़ी है सियाही के अलावा ।

किरदार थे मंज़र थे मक़ासिद थे सबक़ थे,
सब कुछ था कहानी में कहानी के अलावा ।

तुम छोड़ के जब से गए इस खाना-ए-दिल को,
हर शै है ख़फ़ा मुझसे उदासी के अलावा ।