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कुछ निशाने-ज़िन्दगी, कुछ नक़्शे-पा ले जायेंगे / फ़रीद क़मर

कुछ निशाने-ज़िन्दगी, कुछ नक़्शे-पा ले जायेंगे
हादसे अब शहर के दामन से क्या ले जायेंगे

तूने सोचा है कभी तेरे तरीक़े-कार से
कितनों के लब से हँसी, मुँह से निवाले जायेंगे

फूल हैं हम, सूख के बन जायेंगे खाके-चमन
बू नहीं हैं हम कि ये झोंके उड़ा ले जायेंगे

ले रहा है करवटें रह रह के फिर इक कर्बला
फिर से नेज़ों पर हमारे सर उछाले जायेंगे

हैसियत क्या है दिलों की, क्या चराग़ों की बिसात
शाम के साये ये सूरज भी बुझा ले जायेंगे