भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ बुझी बुझी सी है अंजुमन न जाने क्यूँ / कँवल डबावी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ बुझी बुझी सी है अंजुमन न जाने क्यूँ
ज़िंदगी में पिन्हाँ है इक चुभन न जाने क्यूँ

और भी भुत से हैं लूटने को दुनिया में
बन गए हैं रह-बर की राह बन-जान न जाने क्यूँ

उन की फ़िक्र-ए-आला पर लोग सर को धुनते थे
आज वो परेशाँ हैं अहल-ए-फ़न न जाने क्यूँ

जिस चमन में सदियों से था बहार का क़ब्ज़ा
उस में है ख़िज़ाओं का अब चलन न जाने क्यूँ

जिन गुलों से काँटें ख़ुद दूर बच के रहते थे
चाक चाक हैं उन के पैरहन न जाने क्यूँ

ग़ैर कुछ तो करते हैं पास और लिहाज़ अपना
और दोस्त होते हैं ख़ंदा-ज़न न जाने क्यूँ

ग़ुंचे ग़ुंचे के तेवर गुलिस्ताँ में बदले हैं
हम चमन में रह कर हैं बे-चमन न जाने क्यूँ

जिन को अपना समझे थे करते हैं ‘कँवल’ हम से
दोस्ती के परदे में मकर ओ फ़रेब न जाने क्यूँ