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कुछ मेरी ज़िंदगी को भी आयाम दे / गौतम राजरिशी

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कुछ मेरी ज़िन्दगी को भी आयाम दे
इक नयी सुब्‍ह दे, इक नयी शाम दे
 
जाने कब से है जलता चला आ रहा
अब किसी रोज़ सूरज को आराम दे

जो हुआ सब उन्हीं के इशारे हुआ
कौन हाक़िम पे लेकिन ये इल्ज़ाम दे
 
’इश्क़’, ’दीवानगी’ तो पुराने हुये
अब जुनूँ को मेरे और कुछ नाम दे
 
सर उठातीं न ये, बढ़ता बाज़ार क्या ?
ख़्वाहिशों को मेरी कुछ तो ईनाम दे
 
हर सितम देता है छुप के पर्दे में क्यूँ ?
एक तो कम-से-कम तू सरेआम दे
 
कब से बैठे हैं ये शब्द बेरोज़गार
ख़्वाब दे कुछ इन्हें, इनको कुछ काम दे





(मासिक समावर्तन मई 2012, त्रैमासिक अर्बाबे क़लम अक्टूबर-दिसम्बर 2011)