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कुदरत की लेखनी--ग़ज़ल / मनोज श्रीवास्तव

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कुदरत की लेखनी

नक़्शे-कदम से गज़ल लिख रही हो,
फिजाओं के घर में खिजां लिख रही हो.

खुदा के ज़माने से, खुशी के बहाने से
प्रथाएं सिमटने का गम लिख रही हो.

उम्र के तकाज़े पर, बला के ज़नाज़े पर
तलबा झुर्रियों के कहर लिख रही हो.

कुहासों के न्योते पर, ज़फाओं के सोते पर
यहां सर्द दिल का शहर लिख रही हो.

पहाड़ों के घेरे हैं, सहारों के डेरे हैं,
करम आदमी के, वतन लिख रही हो.

(रचना-काल: ०२-०६-१९९२)