भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुमार गन्धर्व का गायन सुनते हुए / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर-दूर तक
सोई पडी थीं पहाड़ियाँ
अचानक टीले करवट बदलने लगे
जैसे नींद में उठ चलने लगे ।

एक अदृश्य विराट हाथ बादलों-सा बढ़ा
पत्थरों को निचोड़ने लगा
निर्झर फूट पड़े
फिर घूमकर सब कुछ रेगिस्तान में
बदल गया ।

शान्त धरती से
अचानक आकाश चूमते
धूल भरे बवण्डर उठे
फिर रंगीन किरणों में बदल
धरती पर बरस कर शान्त हो गए ।

तभी किसी
बाँस के बन में आग लग गई
पीली लपटें उठने लगीं,
फिर धीरे-धीरे हरी होकर
पत्तियों से लिपट गईं ।

पूरा वन असंख्य बाँसुरियों में बज उठा,
पत्तियाँ नाच-नाचकर
पेड़ों से अलग हो
हरे तोते बन कर उड़ गईं ।

लेकिन भीतर कहीं बहुत गहरे
शाखों में फँसा
बेचैन छटपटाता रहा
एक बारहसिंहा ।

सारा जंगल काँपता हिलता रहा

लो वह मुक्त हो
चौकड़ी भरता
शून्य में विलीन हो गया
जो धमनियों से
अनन्त तक फैला हुआ है ।