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कुलधरा के बीच मेरा घर / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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जब भी चढ़ता हूँ बांस की सीढ़ियों के सहारे छत पर मेरा घर दिखता है पुराने खंडहरों से घिरा हुआ
किसी के दीवारों की इट्टें खिसक रही हैं
तो किन्ही के घर भंसकर मिल गए हैं परती में
उनके आंगन, छत और छज्जे
भर गए हैं घास लताओं से
जहरीले कीड़ों ने उन बेचिरागी घरों में
बना लिया है रैन बसेरा
उनमें उग आए हैं वृक्ष और झाड़ियाँ
मिट्टी में मिल गए घरों के ऊपर छा गए हैं रेंड
ढलाऊ जमीन पर लहराते उन्हें देखकर
तुम्हें याद आ जाएंगे विराने के जंगल


उधर के पेड़ों की शाखाएँ छूने लगी हैं मेरे घर का कोना
उसकी कटीली झाड़ियों से उलझने लगे हैं अलगनी पर के टंगे कपड़े
उनके घरों से आती है सड़न की बू
उनके घरों के सीलन से झड़ते हैं मेरे घर के प्लास्टर रात में उड़ते चमगादड़ के झुंड डरावने करते हुए आवाज

कभी आबाद हुआ करते थे वह खंडहर
उनके चूल्हे के धुएँ छेंक लेते थे आकाश
बर्तनों की खड़खड़ाहट से झनकता था संगीत
उनके छतों पर आधी रात तक जमते थे नौवहों के ताश-पत्ते
मुंहअंधेरे कार्तिक के महीने में बड़ी होती लड़कियाँ गाती थीं पीडिया के गीत
उनके पशुओं के गले में बंधी घंटियाँ टुनटुनाती थीं पूरी रात

कुलधरा कि तरह
शाप के भय से नहीं, कुछ पेशे बस कुछ शौक से छोड़ दिए घर-गांव
खो गए दूर-सुदूर शहरों के कंक्रीटो के जंगल में
छूटे घर गोसाले मिलते गए मिट्टी की ढेर में
पुरखों के संचित खेतों की आय से बनती गईं उनकी शहरी संरचनाएँ
उन वंशवृक्षों की टहनियाँ फूल पत्ते लहराते गए महानगरों के सीमांतों में

वे जब भी कभी भूले भटके चले आते हैं देखने आदि मानव संग्रहालय
अपरिचित-सी हो जाती है गाँव की गलियाँ
अब जुड़ नहीं पाते नदी-नाले-खेतों से वे अपने रिश्ते
कभी उनके श्रम की थकान से चूवे पसीना से भी नहीं भींगी धरती
उनकी आंखों से छलकते नहीं खंडहर होते घरों को देखकर पानी

कुलधरा बन चुके गांवों में
वीरान खंडहरों के बीच बसा है मेरा घर
जैसे बहाव के विरुद्ध उभरा डीला
वेगवती नदी की तेज लहरों से जूझता हुआ
अविचल-अडिग-बेखौफ!