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कुली / उत्तिमा केशरी

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रेलगाड़ी के रुकते ही
खड़े हो जाते हैं कुली
मानो ! कर रहे हों अभिवादन
यात्रियों का।

सभी कुली आजमाते हैं —
अपना-अपना भाग्य।
कोई, अपना सामान उठवाते हैं
तो कोई स्वयं ही पीठ पर लाद
चल देते हैं।

कुली दूर तक पीछा करते हैं,
उन यात्रियों का
और हर क्षण घटाते है
अपनी मज़दूरी की दर
बाबू ! दस के बदले पाँच दे देना
पाँच न सही दो दे देना !
पर, यात्री नहीं देखते मुड़कर
एक बार भी उन कुलियों को।

कुली कुछ दूर आगे बढ़ते हैं
वे मन से हारते नहीं हैं,
रहते हैं चुनौती के साथ
पुनः अगली ट्रेन की प्रतीक्षा करते हुए।