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कुल जहाँ इक आईना है हुस्न की तहरीर का / सहबा अख़्तर

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कुल जहाँ इक आईना है हुस्न की तहरीर का
हाल किस पत्थर पे लिक्खा है मिरी तक़दीर का

चाँद उस का आसमाँ उस का सर-ए-शाम-ए-विसाल
जिस पे साया हो तिरी ज़ुल्फ़-ए-सितारा-गीर का

की न चश्म-ए-शौक़ ने जुम्बिश-ए-हुजूम-ए-रंग में
मुझ पे तारी हो गया आलम तिरी तस्वीर का

मैं उसे समझूँ न समझूँ दिल को होता है ज़रूर
लाला ओ गुल पर गुमाँ इक अजनबी तहरीर का

चैन से दोनों नहीं इस आलम-ए-एहसास में
मैं तिरी चुप का हूँ ज़ख़्मी तू मिरी तक़रीर का