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कुहु-कुहु कोयली बोलथे रे / पीसी लाल यादव

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कुहु-कुहु कोयली बोलथे रे।
मया मन में मंदरस घोरथे रे।

तैंहा कहाँ बिलमे मन मोहना,
मन सुवा तोला अगोरथे रे।

डारा-पाना हवा म डोलथे रे,
पाका बीही ल सुवा फोलथे रे॥

सुरता के झाँझ हर झोलथे रे।
मन के पीरा भेद ल खोलथे रे॥

पारा-परोस रहि-रहि ठोलथे रे।
मया-पिरित काबर मोलथे रे॥