भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कूकता आया कभी था, आज तो मैं हूक बनकर जा रहा हूँ / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:55, 25 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह= ऊसर का फूल / गुलाब खंडेल…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कूकता आया कभी था, आज तो मैं हूक बनकर जा रहा हूँ
 
विश्व में मधुमास था तब
और मेरे पास मधु का हास था तब
हास अधरों का नयन में आज छलछल अश्रु बनकर छा रहा हूँ
 
आज प्राणों में व्यथा है
किस तरह पाया इसे लंबी कथा है
तुम समझते मौन हूँ, पर सत्य तो यह है, नहीं कह पा रहा हूँ
 
हो भले पतझाड़ जाये
मिल मुझे दो पत्तियों की आड़ जाये
नीड़ रचने के लिए फिर से गिरी कुछ डंठलें चुन ला रहा हूँ
कूकता आया कभी था, आज तो मैं हूक बनकर जा रहा हूँ