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कृतज्ञ हूँ महामाया / राजेश्वर वशिष्ठ

अपनी कक्षाओं में घूम रहे हैं
असंख्य ग्रह और उपग्रह
जुगनुओं की तरह चमक रहे हैं तारे
आकाशगंगा के बीच
तुम्हें खोजता चला जा रहा हूँ मैं
जैसे कोई साधक जाता है
देवालय अपने आराध्य की अर्चना के लिए !

रत्नजड़ित अलौकिक पीताम्बरी को सम्भाले
तुम बिखेर रही हो अपनी कृपा-मुस्कान
जन्म लेती है एक नई सुबह
पेड़ों पर चहकती है चिड़िया
चटख कर खिलती है एक गुलाब की कली
तुम्हारा होना ही हर सृजन का मूल है देवि !

मैं बहुत कृतज्ञ हूँ
एक बच्चे की तरह तुम्हें निहारते हुए
तुम ब्रह्माण्ड में स्त्री हो महामाया !