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कृष्ण का व्यामोह / शिशुपाल सिंह यादव ‘मुकुंद’

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वृन्दावन की कुञ्ज गली में, मुरली मधुर बजाई थी
विमल गोपियों के संग मैंने, लीला रास रचाई थी
द्वापर में क्रीड़ा करने को, अब भी जी ललचाता है
अरे जरा ! मंगल हो तेरा,कृष्ण धारा से जाता है

दुर्योधन के घोर दुराग्रह से,जन-धन की हानि हुई
गत जीवन के अवलोकन से,मन में भारी ग्लानि हुई
मुझे महाभारत का दारूण,शाप दौड़ कर खाता है
अरे जरा ! मंगल हो तेरा,कृष्ण धारा से जाता है

रण में शास्त्र न धरने मम प्रण गांगेय ने तोड़ दिया
लज्जा से पानी पानी हो,सकुच सहित मुख मोड़ लिया
गांधारी का समाधान क्या,मेरा मन कर पाता है
अरे जरा ! मंगल हो तेरा,कृष्ण धारा से जाता है

ब्रम्ह स्वयं लघु जीव बना मैं,यही प्रबल मेरी माया
तेजहीन हो गया आज मैं,कुंठित है मेरी काया
पार्थ -सखा कहलाने में अब,मेरा मन कतराता है
अरे जरा ! मंगल हो तेरा,कृष्ण धारा से जाता है

बाण पैर से दे निकाल तू,ब्याध! व्यर्थ क्यों रोता है
जो होना है सब अच्छे के,लिए जगत में होता है
मन्द-मन्द मुस्कान लिए यह,कलियुग सम्मुख आता है
अरे जरा ! मंगल हो तेरा,कृष्ण धारा से जाता है