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केना बचैबै जातोॅ हो / अनिल कुमार झा

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उमसी उमसी गरम बितै छै
दिन नै खाली रातोॅ हो,
दिल में अनगिन भूर करै छै
सुरज चन्द्रमा बातोॅ हो।

छौनी छप्पर उजड़ी उजड़ी
दूर खेतोॅ में छै बैठलौं,
भिनसरिया से शीतल जल भी
मोन चढ़ैने छै ऐंठलौ,
हाय हाय हरदम निकलै छै
बेदम छै जज्बातो हो।
की सजनी के सूरत निरखौं
चाह पसीना बनी बहै,
मनो के किंछा मरिये गेलै
आह कहानी कही गेलै।
ठक ठक करने गरमी राखै
घोर घाम के घातो हो,

खेल खेलै छै ई मौसम ते
घाव फुटी के बही गेलै,
बिन मथनी के दिल से माखन
हाय निकाली मही गेलै।
केना परंपत बचतै सोचौं,
केना बचैबै जातोॅ हो।