कैँधोँ तुव चाकर चतुर अनियारे पैठि ,
हृदय पयोधि मन मोती के कढ़ैया हैँ ।
कैँधौँ राजहँस मनसिज के सनेही बनि ,
ताकी हुति तीछन कटाछन चलैया हैँ ।
कैँधौँ नर-धीरता की थाह लै कहत कान ,
कैँधौँ तुव चित चँचलाई दरसैया हैँ ।
कैँधौँ ये तिहारे छविवारे वर मैन बाल ,
नागर नरन चित्त चुम्बक बनैया हैँ ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।